बचपन के वो दिन भी कितने अच्छे होते थे, तब आंसू तो निकलते थे मगर गम के नहीं बस अपनी मासूम सी ज़िद्द पूरी ना होने के। तब दिल नहीं सिर्फ खिलौने टूटा करते थे ,और वो तो नए भी मिल जाते हैं। तब ऐसा लगता था की सारी दुनिया मुट्ठी में है। अब लगता है जैसे हम इस दुनियादारी की मुट्ठी में फंसते जा रहे हैं। "बेपरवाह "शब्द अब "परवाह में बदल गया है। तब खेलने से और दोस्तों से फुर्सत नही थी। अब खेलने और दोस्तों के लिए फुर्सत नही है। जैसे -जैसे बड़े हो रहे हैं ,वैसे वैसे खुद को ढूंढने की जगह ,दुनिया की भीड़ में खोते चले जा रहे हैं। अब छोटी -छोटी बात को दिल से लगा लेते हैं। तब बड़ी -से -बड़ी बात को कुछ पलों में ही भूल जाते थे। तब कपड़े गन्दे ,मगर दिल स्वच्छ होते थे ,मगर अब कपड़े साफ़ और दिल मैले हो गए हैं। तब अपनी एक अलग ही दुनिया होती थी। मगर अब ये दुनिया भी अपनी नही लगती। अब घर में होते हैं तो सिर्फ सन्नाटे का शोर सुनाई देता है ,पहले संयुक्त परिवार का शोर भी सुकून देता था,सुरक्षा देता था। क्या हम सच में तरक्की कर रहे हैं?...... या अपना वज़ूद गवां रहें हैं। अपने अंदर के उस मासूम,पवित्र ,निश्छल बच्चे को अनदेखा कर रहे हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा जब हम में और मशीनों में कोई अंतर नही रहेगा। ...... ...... ....... ....... ........ ... मीनू तरगोत्रा
If you are missing your childhood....please read ,share and like ......
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